भ्रष्टाचार का उन्मूलन विकास के लिए आवश्यक
भ्रष्टाचार भारत में एक कड़वा सत्य है।
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक तथा कच्छ से लेकर नागालैंड तक यह मकडज़ाल
जैसा फैला हुआ है। कैंसर की भांति यह हमारे समाज को निरन्तर खोखला करता जा
रहा है।
भारतीय संस्कृति व्यक्तिगत शुचिता,
नैतिकता तथा कत्र्तव्य परायणता की संवाहक रही है। उस देश में भ्रष्टाचार
जैसे शब्द का नाम लेना भी पाप था। भ्रष्टाचार का प्रथम साक्षात्कार चाणक्य
के ‘अर्थशास्त्र’ में होता है, जहां उन्होंने भ्रष्टों के लिए कड़े आपराधिक
दंड के प्रावधान का सुझाव दिया तथा भ्रष्टाचार द्वारा अर्जित सम्पत्तियों
को शासन द्वारा जब्त करने की सलाह दी। लेकिन, चाणक्य के समय इस
दंड-व्यवस्था को लागू करने की आवश्यकता नहीं हुई। अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया
कम्पनी के समय उपहार संस्कृति द्वारा भ्रष्टाचार खूब फला-फूला। यहां तक कि
कम्पनी के निदेशकों ने धन लेकर मीर कासिम को मीर जाफर के स्थान पर बंगाल
का नवाब बना दिया।
मैकाले ने भारतीय दंड संहिता में रिश्वत
या घूस लेने वाले सरकारी सेवक के लिए सन् 1860 में व्यवस्था की, पर
भ्रष्टाचार सुरसा के मुंह की भांति बढ़ता ही गया। स्वतंत्र भारत में नई
आर्थिक व्यवस्था आई, पर वह लाइसेंसों एवं परमिटों पर आधारित थी। अत:
राजनीतिज्ञों, जो विधि के शिकंजे से बाहर थे, ने बहती गंगा में खूब हाथ
धोये।
सन् 1990 तक भ्रष्टचार ने देश को खोखला कर
दिया। जुलाई 1991 में भारत को इंग्लैंड बैंक में 47 टन सोना गिरवी रखना
पड़ा। तब सभी की आंखें खुली तथा तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के
नेतृत्व में उदारीकरण तथा वैश्वीकरण की शुरूआत हुई। परिणाम उत्तम रहे तथा
भारत का विदेशी मुद्रा भंडार शनै: शनै: अप्रत्याशित ऊंचाईयों तक पहुंचता
रहा। इसमें योगदान उन मुख्यत: युवा इंजीनियरों तथा पेशेवरों का है,
जिन्होंने सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से विदेशों में जाकर भारत का झंडा
गाड़ा। वे ही जब भारत वापस आना चाहते हैं, तो यहां के बढ़े हुए भ्रष्टाचार
से डर कर मुंह मोड़ लेते हैं। आज उदार अर्थव्यवस्था में भी भारतीय नौकरशाही
द्वारा इतने रोड़े अटकाये जाते हैं, विलंब किया जाता है कि हम प्राय: फिर
से लाईसेंस तथा परमीट राज में पहुंच जाते हैं। यह आजकल के वैश्वीकरण युग
में चल नहीं सकता। भारत फिर से आर्थिक दौड़ में पिछड़ जाएगा। अत: वर्तमान
काल में भ्रष्टाचार से लडऩे के लिए आवश्यक है हमारे तंत्र में चारों ओर
व्याप्त विलंब से लडऩा तथा इसके लिए प्रभावी कानून बनाना। यदि तंत्र में
सुधार आरम्भ हो गया, तब दूध वाले से लेकर पेपर वाले तक, चालक से लेकर नौकर
तक, दूकानदार से लेकर निर्माता तक, वकील से लेकर डॉक्टर तक तथा सिपाही से
लेकर मंत्री तक भी सुधार के रास्ते पर चल निकलेंगे।
विकास के लिए भी भ्रष्टाचार को नियंत्रित
करना आवश्यक है। स्वतंत्रता के 68 वर्षों के बाद भी यदि हमारी योजनाओं का
केवल पन्द्रह प्रतिशत ही लाभार्थी तक पहुंचे तो इससे अधिक भारतीय तंत्र के
लिए शर्मनाक और कुछ नहीं है। यही कारण है कि अन्ना हजारे के अगस्त, 2011
में भ्रष्टाचार के विरूद्ध आंदोलन तथा अनशन को प्रथम बार भारत में इतना
प्रबल जन समर्थन प्राप्त हुआ। महानगरों से लेकर नगरों तक तथा कस्बों से
लेकर गांवों तक अन्ना हजारे के समर्थन में प्रदर्शन हुए। अत: यह भारत के
प्रजातंत्र के लिए सबक लेने का क्षण है। जो समय से निर्णय नहीं ले पाते, वे
प्रगति की दौड़ में पिछड़ जाते हैं। आजकल तो ऐसे शासकों को संसार में जनता
उखाड़ फेंक रही है।
क्या भ्रष्टाचार के खिलाप हे तो आये इस वेबसाइट पर हम सब सपत लेते हे
भ्रष्टाचार की बीमारी इतनी खतरनाक है कि
इससे किसी का लाभ नहीं होता। जो भ्रष्ट तरीकों से धन अर्जित करता है, वह
उसे ऐश तथा दिखावे में खर्च कर देता है, फिर जब उसे अपना काम निकालने के
लिए रिश्वत देनी पड़ती है तो वह परेशान हो जाता है। उसे अपने दैनिक जीवन के
खर्चे कम करके घूस देना पड़ता है। यह सभी धन अनुत्पादक कार्यों में लगता
है, इससे देश की जीवंत शक्ति दुर्बल होती है। दूसरे मेहनतकश एवं ईमानदार
व्यक्ति हताश होते हैं तथा किशोर एवं युवा पीढ़ी में बिना परिश्रम किये
बड़ी-बड़ी महत्वाकांक्षाएं उत्पन्न हो जाती हैं। अत: इस खतरनाक बीमारी का
तुरंत इलाज करना अत्यन्त आवश्यक है।
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- भारतीय दंड संहिता की धाराएं 161, 162, 164, 165 तथा 165(क) अति प्रभावी है, लेकिन इन धाराओं के अंतर्गत मुकदमों में वर्षों का बिलंब हो जाता है। फलत: ये प्रभावहीन हो गई हैं। त्वरित न्यायालयों से कुछ आशाएं बंधी पर वे भी शनै: शनै: न्यायिक प्रक्रिया पद्धति के गुलाम होते जा रहे हैं और उन पर भ्रष्टों तथा उनके अभिवक्ताओं का बोलबाला हो रहा है।
2) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 एक
उत्तम अधिनियम है, जिसके अंतर्गत भ्रष्ट अधिकारी की सम्पत्ति भी जब्त की जा
सकती है, यदि वह उसके घोषित स्रोतों से अधिक हो। लेकिन, ये प्रावधान भी
विलंब की प्रक्रिया में खो जाते हैं। इस अधिनियम की धारा 22 के अंतर्गत यदि
एक बार अभियोजन आरंभ हो जाता है तो वह स्थगित नहीं हो सकता, परन्तु
अदालतें स्थगन पर स्थगन दिये जाती हैं और वकील फीस के लिए स्थगन लिये जाते
हैं। इस अधिनियम के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय ने सी.बी.आई. बनाम परमेश्वर
मामले (2009), 9 एस.सी.सी. 29 में यह व्यवस्था दी कि यदि चार्जशीट अभियोजन
ठीक-ठीक तरह से स्थापित करती है तो सरकार की अनुमति आवश्यक नहीं है। इस
अधिनियम के अंतर्गत रिश्वत देने वाला समान रूप से अपराधी है।
- केन्द्रीय सरकार में केन्द्रीय सतर्कता आयोग है जो कि केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों में भ्रष्टाचार की रोकथाम तथा उन्हें दंड देने के लिए प्रयासरत है। प्रत्येक मंत्रालय में तथा केन्द्रीय सरकारी उपक्रमों में भी सतर्कता अधिकारी नियुक्त हैं। यहां तक कि बैंकों आदि में भी। फिर भी भ्रष्टाचार की नदी बह रही है, क्योंकि कहीं न कहीं उच्च पदस्थ अधिकारियों तथा मंत्रियों ने इनकी डोर अपने हाथों में ले रखी है। इसी प्रकार राज्यों में भी सतर्कता आयोग है, पर देखा जाता है कि भ्रष्ट अधिकारी स्वतंत्र घूमते रहते हैं। मुख्यमंत्रीगण अपने चहेते अधिकारियों की फाइलें ही नहीं छेड़ते हैं।
- इसी प्रकार जांच आयोग अधिनियम, 1952 के अंतर्गत कई भ्रष्टाचार सम्बन्धी जांचे होती हैं, पर उच्चाधिकारियों तथा नेताओं या मंत्रीगणों की सांठ-गांठ के कारण उन पर कार्यवाही नहीं होती और उनकी फाईलें सचिवालयों में धूल फांकती रहती हैं।
- फेमा भी है तथा मनी लाउन्डरिंग अधिनियम भी। उनका उत्तम प्रभाव शनै: शनै: सामने आ रहा है। इन समस्याओं से उबरने के लिए केन्द्रीय लोकपाल बिल 1998 द्वारा लोकपाल की नियुक्ति की व्यवस्था थी। सत्रह राज्यों में सर्तकता आयुक्त अथवा लोकायुक्त हैं, पर उनकी रपटों पर पूर्ण कार्यवाही सरकारी अनुमति के बिना नहीं हो सकती। यह लोकपाल बिल केन्द्रीय स्तर पर संसद में प्राय: चालीस वर्षों से लंबित था। यही कारण है कि अन्ना हजारे एवं उनके सहयोगियों ने जन लोकपाल बिल सरकार के सामने रखा पर सरकार इस पर सहमत नहीं हुई। सरकार ने अपनी ओर से संसद में जो बिल पेश किया वह पूर्व बिलों या रिश्वत प्रतिरोधी अधिनियमों की भांति बिना दांतों वाला ही था। अन्ना हजारे के दल ने जो नया विधेयक दिया, उसमें प्रमुख प्रावधान हैं -
क) प्रशासनिक दुराचार भी दंडनीय है।
ख) प्रधानमंत्री भी एक ‘सरकारी सेवक’ हैं।
ग) ‘लोकपाल’ प्रतिष्ठान द्वारा अर्जित दंड, जुर्मानों आदि का दस प्रतिशत लोकपाल प्रतिष्ठान के सुदृढ़ीकरण के उपयोग में लगेगा।
घ) सेवा के पश्चात लोकपाल प्रतिष्ठान के अध्यक्ष एवं सदस्यगण सरकारी सेवाओं या आयोगों में नहीं जा सकेंगे।
च) इसमें एक लोकपाल तथा दस सदस्य रहेंगे।
छ) वे पांच वर्र्ष तक रहेंगे तथा अधिकतम दस वर्र्ष तक सेवा कर सकेंगे।
ज) लोकपाल एवं सदस्यों की चयन समिति में
कोई सरकारी प्रतिनिधि नहीं है। संसद के दोनों सदनों के अध्यक्ष हैं। उच्चतम
न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधिपति इस चयन समिति के अध्यक्ष होंगे।
प) लोकपाल उन सरकारी सेवकों को दंडित कर
सकता है या नौकरी से बर्खास्त कर सकता है तथा वरिष्ठ अधिकारियों पर और अधिक
दंड लगा सकता है, जबकि पूर्व में संयुक्त सचिव या उससे ऊपर अधिकारी
सुरक्षित थे।
फ) लोकपाल उन ठेकेदारों या जमींन
लाभार्थियों के ठेके या जमीन का पट्टा या अधिकार रद्द कर सकता है या
संशोधित कर सकता है, जो इस प्रकार के विधि-विरोधी कार्यों में संलिप्त पाए
जाते हैं।
ब) लोकपाल को तलाशी और अभिग्रहण का अधिकार है।
भ) लोकपाल द्वारा आरम्भिक जांच एक मास के अंदर पूर्ण की जाएगी कि उपर्युक्त सरकारी सेवक के विरूद्ध मामला आगे बढ़ेगा या नहीं।
म) लोकपाल की संतुष्टि पर सरकार को उतने
विशेष न्यायाधीशों को नियुक्त करना होगा, ताकि भ्रष्टाचार सम्बन्धित मामले
एक वर्र्ष के अंदर निष्पादित हो सके। यह दु:साध्य कार्य है।
य) सरकार को सरकारी सेवक के भ्रष्ट आचरण
से जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई उसकी सम्पत्तियों से या रिश्वत देने वाली
कम्पनियों, यहां तक कि निदेशकों से व्यक्तिगत रूप से की जाएगी।
र) भ्रश्टाचार के मामलों में दंड पांच
वर्ष से आजीवन कारावास तक हो सकता है। संयुक्त सचिव से ऊपर अधिकारियों तथा
मंत्रियों को कम से कम दस वर्ष की सजा होगी। इसी प्रकार रिश्वत देने वाले
के लिए भी दंड का प्रावधान है।
तथाकथित जन लोकपाल बिल एक उत्तम विधेयक
है। यदि इसमें निहित नागरिक घोषणा-पत्र के अनुसार नागरिक की शिकायत का
पंद्रह दिन में समाधान हो या उत्तर मिले, तो यह अत्यन्त सराहनीय होगा।
वर्तमान परिवेश में यह अत्यन्त कठिन है।
यह ऐतिहासिक सत्य है कि वर्षों से ठंडे
बस्ते में पड़े भ्रष्टाचार निरोधी अधिनियम को अन्ना हजारे के अप्रैल, 2011
के आन्दोलन के दवाब में भारतीय संसद को पास करना पड़ा। इस आन्दोलन का
पुरजोर समर्थन वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, वित्तमंत्री अरूण जेटली
तथा लालकृष्ण आडवाणी ने किया था, पर आज भारतीय जनता पार्टी की सरकार है।
अत: यह विश्लेष्ण आवश्यक है कि वर्तमान सरकार इस दिशा में क्या कदम उठा रही
है अथवा क्या भारत के सभी राजनीतिक दल एक जैसे हैं जो निर्वाचित होने के
पश्चात जनता को किये गये मुख्य वायदे भी भूल जाते हैं और परम्परागत
प्रशासन चलाते रहते हैं।
अधिनियम का उद्देश्य: यह अधिनियम 1 जनवरी,
2014 को राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के साथ ही भारतीय संघ का कानून बन गया
तथा सम्पूर्ण भारतीय इसके अनुपालन के लिए बाध्य हो गये। राष्ट्रपति की इस
नये वर्ष की सौगात से जनता को आशा बंधी कि देश में भ्रष्टाचार मुक्त नया
विहान होगा, पर प्रक्रिया के पचड़े में पड़कर इस अधिनियम में 1 जनवरी, 2015
तक संशोधन ही होते रहे। अधिनियम का उद्देश्य था कि देश में साफ-सुथरी तथा
उत्तरदायी सरकार होगी तथा लोकपाल जैसी प्रभावशाली संस्था के माध्यम से देश
में भ्रश्टाचार के कारनामों को रोका जायेगा तथा उन्हें दंडित किया जायेगा।
अधिनियम के मुख्य-मुख्य प्रावधान
- लोकपाल के कार्यालय में एक अन्वेषण निदेशक की नियुक्ति होगी, जो एक लोकसेवक द्वारा भ्रष्टाचार निरोध अधिनियम 1988 के अंतर्गत किये गये अपराधों की प्रारम्भिक जांच करेगा।
- लोकपाल के अंतर्गत एक अभियोजन शाखा रहेगी, जो विशेष न्यायालयों में लोकसेवकों के विरूद्ध मुकदमें दायर करेगी तथा उनकी पैरवी करेगी।
- क्षेत्राधिकार:
भ्रष्टाचार से संबंधित शिकायतें पर भी कर सकते हे
(क) अंर्तराष्ट्रीय सम्बन्धों, बाहरी एवं
आन्तरिक सुरक्षा, कानून-व्यवस्था, पारमाण्विक शक्ति तथा अंतरिक्ष के मामलों
को छोड़कर प्रधानमंत्री भी।
(ख) सभी ग्रुप ए तथा बी के अधिकारी।
(ग) सभी गु्रप सी तथा डी के कर्मचारी।
(घ) सभी केन्द्रीय सरकार के उपक्रमों एवं संस्थाओं के अधिकारी एवं कर्मचारी।
(ड़) उन सभी समूह अथवा निधियों के निदेशक,
प्रबन्धक या सचिव जिन्हें सरकार से अनुदान प्राप्त है एवं जिन्हें विदेशों
से योगदान प्राप्त होता है। इस प्रकार स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) भी लोकपाल
के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आते हैं।
(च) जो लोग रिश्वत देते हैं या देने में सहायता या षडयंत्र करते हैं।
- यदि लोकपाल यह निर्णय लेता है कि विशिष्ठ जांच हो तो वह अपनी जांच-पड़ताल शाखा को अथवा सीबीआई को प्राम्भिक जांच के लिए आदेश दे सकता है।
- यदि लोकपाल प्रारम्भिक जांच को आगे बढ़ाने का निर्णय लेता है तो ग्रुप-ए तथा ग्रुप-बी के अधिकारियों के विरूद्ध इस प्रारम्भिक निर्णय पर केन्द्रीय सर्तकता आयोग के विचार मांग सकता है।
- ग्रुप सी तथा गु्रप डी के कर्मचारियों के विरूद्ध केन्द्रीय सतर्कता आयोग, केन्द्रीय सर्तकता आयोग अधिनियम 2003 के अंतर्गत कार्यवाही करेगा।
- ये जांचे 60 दिन के अंदर पूरी की जायेंगी।
- लोकपाल से आये हुए मुकदमों की सुनवाई के लिए केन्द्रीय सरकार, लोकपाल की आवश्यकतानुसार आवश्यक संख्या में विशेष न्यायलय गठित करेगी।
- प्रत्येक सरकारी नौकर या लोकसेवक 31 मार्च को प्रत्येक वर्र्ष अपनी एवं अपने परिवार की सम्पत्तियों का विवरण विभाग की वेबसाईट पर देगा।
- जो व्यक्ति लोकपाल के सामने झूठी शिकायत करता है उसे एक वर्ष का कारावास तथा एक लाख रूपये तक का दंड हो सकता है। यह प्रावधान एनजीओ तथा ट्रस्ट के लिए भी समान रूप से प्रयोज्य है।
- एक वर्ष के भीतर सभी राज्य अपने राज्य में लोकायुक्त की नियुक्तियां करेंगे।
रिश्वत लेने, अनुप्रेरित करने या देने के
लिए किसी भी व्यक्ति की भ्रष्टाचार अवरोधक अधिनियम के अंतर्गत कम से कम 6
महीने तथा अधिक से अधिक पांच वर्र्ष तक की सजा तथा जुर्माना हो सकता है।
- यदि कोई लोकसेवक के पास उसकी आमदनी के स्रोतों से अधिक सम्पत्तियां पाई जाती हैं या वह एक आदतन रिश्वत लेता है तो उसे सात वर्ष की कैद एवं जुर्माना हो सकता है।
- लोकपाल यदि आरम्भिक जांच में किसी लोकसेवक को दोषी पाता है तो उसे स्थानान्तरित या निलम्बित करने के लिए सिफारिशें कर सकता है।
- यदि विशेष न्यायालय प्रथम दृष्टया किसी लोकसेवक को दोषी पाता है तो उसकी सम्पत्तियां या रिश्वत से प्राप्त धन को जब्त करवा सकता है। जबकि लोकपाल भी यदि संतुष्ट हो, तो वह भी स्वयमेव इन सम्पत्तियों को अपने कब्जे में ले सकता है।
अधिनियम का कार्यान्वयन: भारतीय जनता के
स्वप्नों की लोकपाल संस्था को निहित स्वार्थों ने जन्म ही नहीं लेने दिया।
लोकपाल एवं सदस्यों की नियुक्ति के लिए धारा 4 में एक सात सदस्यीय खोजबीन
समिति बनाई गई, जो लोकपाल एवं सदस्यों की सिफारिश करेगी। इसमें सर्तकता
सम्बन्धी मामलों के विशेषज्ञों का प्रावधान था। उस समिति में एक न्यायविद्
तथा उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश थे, जिन्होंने खोजबीन समिति
की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। उस खोजबीन एवं नियुक्ति समिति में यह
प्रावधान नहीं था कि कोई पद खाली होने पर क्या होगा। फलत: खोजबीन समिति ही
अप्रभावी हो गई तो लोकपाल एवं सदस्यों की नियुक्ति अधर में लटक गई। एक वर्ष
में फिर लोकपाल और तथा अन्य सम्बन्धित अधर में लटक गई। एक वर्ष में फिर
लोकपाल और लोकायुक्त तथा अन्य सम्बन्धित विधि (संशोधन) विधेयक, 2014 लाया
गया। अब यह संसद से पास होकर राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए जायेगा।
राष्ट्रपति के अनुमोदन के पश्चात संशोधन सम्बन्धी अधिसूचना जारी होगी।
तत्पश्चात ही वह संशोधन प्रभावशाली होगा एवं एक वर्र्ष बाद लोकपाल अधिनियम,
2013 के कार्यान्वयन का पथ प्रशस्त होगा।
कोई भी अधिनियम पूर्ण नहीं होता। उसके
कार्यान्वयन के बाद ही इसमें कमियां पता चलती हैं तथा उनको क्रमश: दूर किया
जा सकता है। इसका अर्थ यह नहीं कि उस अधिनियम का कार्यान्वयन ही रोक दिया
जाये। इस अधिनियम के कार्यान्वयन में काफी काम बाकी है। अब तो लोकपाल के
कार्यालय को स्थापित करने के लिए खोज शुरू होगी। फिर कार्यालय को
सजाने-संवारने तथा कर्मचारियों के आने में अपना समय लगेगा। इसी बीच इसकी
स्थापना को लेकर कुछ भ्रष्टाचार समर्थक शक्तियां उच्चतम न्यायलय या
उच्च-न्यायालय में इसकी संवैधानिक वैधानिकता को लेकर लोकहित वाद दायर
करेंगी। आशा है कि उन्हें स्थगन आदेश नहीं मिलेगा, अन्यथा यह संस्था
स्थापित न होकर न्यायालयों की फाईलों में ही दब जायेगी। उसके पश्चात जनता
अपनी भड़ास निकालने के लिए हजारों शिकायतों या मामला दायर करेगी जिससे यह
संस्था शुरू होने के पूर्व ही शिकायतों के बोझ से दब जायेगी तथा उसके
विभिन्न पीठें यह शिकायत करती दृष्टिगोचर होंगी कि वे कैसे काम करे, जैसा
कि उपभोक्ता फोरम एवं उपभोक्ता अपील न्यायालय आज भी कर रहे हैं तथा जनता के
दु:ख का निवारण करना भूल गये हैं। विशेष न्यायालयों का गठन तो एक अत्यन्त
टेढ़ी खीर है। इसके लिए उच्च न्यायालय की अनुमति चाहिए तथा न्यायाधीश कुछ
महीनों में नहीं बनाये जा सकते हैं। अधिनियम में यह भी व्यवस्था थी कि सभी
राज्य सरकारें अपने राज्य में लोकायुक्तों की नियुक्तियां एक वर्ष के भीतर
करेंगी, पर आज भी कई राज्य सरकारें, जैसे कि पंजाब ने अपने यहां लोकायुक्त
की नियुक्तियां नहीं की हैं। उन राज्यों के विरूद्ध क्या कार्यवाही हुई?
लोकसेवकों की सम्पत्तियों का विवरण एकत्रित करना एवं विभाग अथवा मंत्रालयों
के वेबसाइटों पर प्रकाशित करना एक आसान काम था, क्योंकि वरिष्ठ लोकसेवक
जैसे क आईएएस तथा अन्य भारतीय सेवा के अधिकारी एवं केन्द्रीय सेवा अधिकारी,
वर्षों से अपनी सम्पत्तियों का विवरण दे रहे थे पर यह काम भी न हो सका एवं
सक्षम अधिकारी को निर्दिष्ट सूचना प्रकाशित करने का अधिकार देना पड़ा।
सारांश
इस अधिनियम से जनता को बड़ी आशाएं हैं,
क्योंकि यह अधिनियम उनके देशव्यापी एकजुटता तथा आन्दोलन का ही यह परिणाम
था। भ्रष्टचार को हटाने के लिए भी जनता ने मोदी सरकार को अपना जनादेश दिया
था। जनता नहीं चाहती कि भ्रष्टाचार जैसी विकराल समस्या से निबटने वाली
संस्था केन्द्रीय सर्तकता आयोग तथा केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) की
भांति सरकार की मुखापेक्षी हो। राजनीतिक आकाओं ने भी उच्चाधिकारियों की डोर
अपने हाथ में ले रखी थी तथा उनकी अनुमति के बिना राज्य में सचिव एवं
केन्द्र में संयुक्त सचिव के विरूद्ध कार्यवाही करना सम्भव नहीं था। भारत
में भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे चलता है, जो अब नीचे असाध्यय बीमारी की भांति
फैल चुका है। अत: इस अधिनियम में सभी को सम्मिलित कर लिया गया है। यहां तक
कि प्रधानमंत्री को भी। साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि इससे जो अनिर्णय की
स्थिति उत्पन्न हो वह भी भ्रष्टाचार की भांति दंडित हो। लोकसेवक का कर्तव्य
है निर्णय लेना। यदि वह निर्णय नहीं ले सकता तो उसे पद छोड़ देना चाहिए।
न्यायालयों के प्रशासनिक अधिकारी तो न्यायाधीश नहीं हैं। वे भी न्यायालयों
में चपरासियों, बाबुओं आदि के भ्रष्टाचार के लिए दोषी हैं। उन्हें भी इस
अधिनियम के अन्तर्गत आना चाहिए।